विधा मन:कल्पित और फल शास्त्रसम्मत विरोधाभासी मानसिकता — पुरी शंकराचार्य

अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट

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जगन्नाथपुरी — ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य पूज्यपाद स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी महाराज वर्णव्यवस्था पर अनास्था रखते हुये ‌तथा फलप्राप्ति वर्णव्यवस्था के अनुसार चाहने की विरोधाभासी इच्छा पर स्थिति स्पष्ट करते हुये सचेत करते हुये विचार बिन्दू शीर्षक से संकेत करते हैं कि शिक्षा, रक्षा, शासन, अर्थ, सेवा, भोजन, वस्त्र, विवाह,शवस्पर्श, शवदाह, देवसमर्चा, पुरोहित, आचार्य , यज्ञ, दान, तप, व्रतादि वर्ण (जाति) के क्रियान्वयन के क्षेत्र नहीं हैं ? इस मान्यता का अन्तर्निहित अभिप्राय वर्णव्यवस्था में प्रगति के नाम पर पूर्ण अनास्था ही सिद्ध है।ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि प्रकृति प्रदत्त सकल भेदभूमियों के सदुपयोग तथा उनसे अतिक्रान्त निर्भेद परमात्मा की समुपलब्धि का अमोघ उपाय क्या है ? जब सनातन शास्त्रों में अभ्यदुय और निःश्रेयसरूप फल से किसी को वञ्चित नहीं किया गया, तब उपायगत विभेद में अनास्था का कारण क्या है ? विधा मन:कल्पित तथा फल वेदादि शास्त्र समर्थित इस मान्यता के क्रियान्वयन के फलस्वरूप प्राप्त विस्फोटक परिणाम पर ध्यान केन्द्रित करना अत्यावश्यक है। ध्यान रहे ; चिरपरीक्षित तथा प्रयुक्त सनातन सिद्धान्त का प्रगति के नाम पर अनादर प्रगति का परिपन्थी है।

Ravi sharma

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