आज सूरदास जयंती पर विशेष लेख– अरविन्द तिवारी की कलम✍️से-

ऑफिस डेस्क– यह भारत भूमि संतों की भूमि रही है। आज के दिन वैशाख शुक्ल पक्ष पंचमी को भी इस धरा धाम पर दो महान आत्माओं का अवतरण हुआ। एक आदिगुरु शंकराचार्य और दूसरे महान संत सूरदास। दोनों ने ही इस भारतवर्ष पर बड़ा उपकार किया और अपने अपने समय में अपने अपने तरीके से इस जीव के उद्धार और कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। महापुरुषों का अवतरण तो जीव मात्र के कल्याण के लियै ही इस धरा धाम पर होता है। सनातन धर्म को संपूर्ण भारतवर्ष में जिस तरह से जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी जी ने स्थापित और प्रतिष्ठित किया जाना अद्वितीय है। वहीं कृष्ण भक्ति का जो जनजागरण अभियान सूरदास बाबा ने चलाया वह भी अनुपम ही है।
महाकवि सूरदास भगवान श्रीकृष्ण भगवान के अनन्य भक्त थे। वे भले ही आंँखों से देख नहीं सकते थे लेकिन पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सूरदास की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान कृष्ण में उन्हें दिव्य ज्योति दी थी जिससे कि सूरदास आंँखें ना होने के बावजूद भी वे किसी के मन की बात भी बड़ी आसानी से पढ़ लेते थे। दृष्टि ना होने के बावजूद सूरदास ने ब्रजभाषा में कृष्ण भक्ति पर कई महाकाव्य , दोहों और भगवान श्रीकृष्ण के लीलाओं की रचना की है। अपनी रचनाओं में सूरदास ने भक्ति रस और श्रृंँगार रस का सुंदर समायोजन किया है। सूरदास का जन्म संवत 1535 में रुनकता नाम के गांव में हुआ , यह गांव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे है। सूरदास के पिता रामदास गायक थे। कुछ दिनों तक सूरदास आगरा के पास गऊघाट पर रहते थे। वहीं उनको श्रीवल्लभाचार्य मिले और सूरदास पंद्रह वर्ष की अवस्था में महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के शिष्य बन गये। गुरु वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग की दीक्षा दी और श्रीकृष्ण लीला के पद गाने का आदेश दिया। दीक्षा से पूर्व वे विनय के पद लिखा करते थे और दीक्षा के उपरांत बल्लभाचार्य जी की कृपा से उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का गायन किया। वल्लभाचार्य ने इन्हें श्री नाथ जी के मंदिर में लीलागान का दायित्व सौंपा जिसे ये जीवन पर्यंत निभाते रहें।  साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रज भाषा के महाकवि सूरदास को भी एक बार अपनी भक्ति और काव्य रचना की परीक्षा देनी पड़ी थी। प्रभु का जैसा श्रृंगार होता है, नेत्रों से दिव्यांग होते हुये भी वह वैसा ही वर्णन अपने पद में करते थे।चंद्रसरोवर से करीब तीन किमी दूर जतीपुरा में श्रीनाथजी को नित्य कीर्तन सुनाने जाते थे। सूरदास जी रोजाना प्रभु की श्रृंगार सेवा में उपस्थित रहते थे। भगवान का जैसा श्रृंगार होता था उसी का वर्णन वे पदों के माध्यम से करते थे। एक बार गोकुलनाथ (बल्लभाचार्य के वंशज) ने प्रभु का श्रृंगार कर सूरदास जी की परीक्षा लेने की सोची। उन्होंने प्रभु का पुष्पों से श्रृंगार किया। प्रभु को वस्त्र धारण नहीं कराये और सूरदास से श्रृंगार का पद गाने के लिये कहा। इस पर सूरदास जी ने सुनाया — आज हरि देखे नंगम नंगा। उन्होंने सूर सागर, साहित्य लहरी, सूर सारावली जैसे ग्रंथों की रचना की। संवत 1640 में परासौली में उन्होंने इस दुनियाँ से विदा ली, सूरदास जी की समाधि परासौली में है। सूरदास ने काव्य की साधना में भक्तिकाल के स्वर्णिम 73 वर्ष गोवर्धन के समीप चंद्र सरोवर (राजस्व ग्राम के रूप में परासौली दर्ज है) में बिताये। यहांँ पर ही रहकर उन्होंने ब्रजभाषा में पदों की रचना की। भगवान श्रीकृष्ण के रासस्थली और महाकवि सूरदास के इस तपस्थली पर मुझ जैसे तुच्छ लेखक को भी दो वर्ष तक सेवाकार्य करने का अवसर मिला। महाकवि सूरदास जी को श्रद्धा सुमन समर्पित है।

Ravi sharma

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