श..श्श…श…! डर। विश्व आत्महत्या निवारण दिवस पर विशेष- डॉ॰ मनोज कुमार की कलम से

बात उन दिनों की है। जब पटना की सङकें मेरे लिए एक दोस्त जैसी थी। कॉलेज में एडमिशन की बारी में था। सुबह और शाम गंगा के घाटों पर बैठता था। कभी जिलाधिकारी को आते-जाते देखता था। एक्जबिशन रोड रामगुलाम चौक के पास अपने अड्डे होते।रविवार को हमारे कुछ नये दोस्त बनते थे। कुछ बॉडी बिल्डिंग की बाते करते तो कुछ अपने कैरियर को लेकर बाते करते।राजनिति पर भी टिप्पणियां हुआ करती।इधर विश्वविद्यालय की हङताल ने हम सबों की उम्मीद तोड़ने लगी थी।


मुझे याद है वो चेहरा और उसका एटीट्यूड।बेहद शालीन और सौम्य छवि का था वो।हम सब को उसे कुछ कहना होता तो बेधङक बोल देते।वह चुपचाप हमारी बातों को सुन लेता।ज्यादातर वह शर्मा जाता।हम सब की टोली में शामिल होने के लिए वह महेन्द्रू से पैदल अशोक राजपथ होते आता। हम सब उसे कबीर ही बोलते थे,हांलाकी वो इसका निक नेम था।फिर भी वो नही चिढता।हमेशा ज्ञान की बाते और दुनिया की समस्याओं पर ही बात करता।धीरे -धीरे हमसब के ग्रुप में समाजिकता बढ रही थी।पता नहीं कब हमलोगो ने शहर के लोगों की मदद भी करनी शुरू कर दी।उस समय शहर में इधर-उधर भटकने वाले मानसिक दिव्यांग रोगियों को हमसब खाना खिलाया करते।कारगिल चौक के पास बस यात्रियों को होनेवाले दिक्कत हो या पटना विश्वविद्यालय के काली घाट पर फैली गंदगी भी कबीर के लिए समाजिक समस्या नजर आती।

वह बार-बार कहता की जब वह जिलाधिकारी के रूप में कार्य संभालेगा तब समाज में काफी सुधार लायेगा।दहेज,नशा,शिक्षा में सुधार और न जाने कितने अनगिनत बाते उसके मन में थी।कबीर हमेशा खुद को दरकिनार करता था।अपने माता-पिता की बात मानकर वो मेडिकल की तैयारी जरूर कर रहा था लेकिन उसका सपना था की गांधी मैदान,पटना और शहर के गली-चौराहे भी अतिक्रमण मुक्त हो।बातो ही बातो में पता चला था की वह स्कूल लाईफ से ही अलका को पसंद करता है. लेकिन अरसा बीता जा रहा था अबतक कोई बात नही बनी।अंतःमुखी स्वभाव और मन में समाज के लिए कुछ करने की चाहत थी पर अभिभावक के दबाव से परेशान वह कोटा चला गया।तब आज जैसे एड्रायंड फोन न थे।


तनाव ,दबाव और अपेक्षाओं के बोझ में जी रहा कबीर कब मानसिक रोग के चपेट में आ गया।इसका अंदाजा उनको नही लगा।जैसा की कबीर के चाचा ने बताया था की उस सुबह हॉस्टल से अंतिम बार फोन आया था की वह अपने जीवन में सफल न हो सका।और अचानक एक गलत फैसले ने उसके घरवालों को जिंदगी भर के लिए गम दे दिया।कबीर अवसादग्रस्तता की हालात में अपने जीवन की इहलीला समाप्त कर चुका था।


हम सब हतप्रभ थे की काश वो अपने मन से डर निकाल गार्जियन से अपने कैरियर पर सीधे बात करता।काश..वह डर-डर कर न जी रहा होता।अपनी खामोशी से लङता और विकल्पों पर ध्यान देता।
जीवन में डर के आगमन से वह सदा के लिए चुप हो गया।
जिंदगी की अहमियत इसका सामना करने व लङने में आता है। इस जीवन को आपके माता-पिता ने सींचा है।समाज को देने में काफी खुशी है। डर इंसान को कमजोर करता है। अंदर से खोखला होने से अच्छा है बाहर से मजबूत दिखें।


आइये अपने आसपास के लोगों से बातें करें।विश्व आत्महत्या निवारण दिवस के संदेश के रूप में नहीं वरन खुद के आत्म संतोष के लिए ।सकारात्मक समाज के निर्माण और लोगों के जीवन को अनमोल बनाकर समाज में मानसिक बीमार लोगों के मन में हौसले भरकर स्वस्थ भारत की कल्पना करें।

(डॉ॰ मनोज कुमार, मनोवैज्ञानिक,पटना द्वारा विश्व आत्महत्या निवारण दिवस (10 सितंबर 2019)पर विशेष। )

Ravi sharma

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