भागलपुर डीआईजी विकास वैभव की कलम से अतीत के आईने में स्वतंत्रता दिवस-

स्वतंत्रता दिवस 2019 की पूर्वसंध्या का अवसर है !

यात्री मन जहाँ ऐतिहासिक कालखंड में हुए परिवर्तनों की समीक्षा के क्रम में निकटवर्ती संकेतकों से आशान्वित है,वहीं राष्ट्र के भविष्य को लेकर चिंतनरत भी । मन 15 अगस्त, 1947 का स्मरण कर रहा है, जब सदियों की परतंत्रता के पश्चात भारत स्वतंत्र रूप में विश्वपटल पर पुनः नवोदित हुआ था । तब सदियों के संघर्ष के प्रतिफल रूप में उदित नवीन ज्योति जहां राष्ट्र के प्राचीन अस्तित्व को पुनः प्रकाशित कर रही थी,वहीं राष्ट्रभक्तों के अंर्तमन में सुख के साथ-साथ एक गहरा आघात भी स्पर्शित कर रही थी । तत्कालीन नेतृत्वकर्ताओं के लघु स्वार्थों में सामंजस्य न हो पाने के कारण अत्यधिक संघर्ष उत्पन्न हुआ था, जिसके कारण सदियों से विद्यमान परंतु ऐतिहासिक परिस्थितियों के कारण नेपथ्य में गौण साम्प्रदायिक तनाव ने पुनः नवीन विषधारी एवं अत्यंत विकृत रूप धारण कर लिया था. जिससे प्रभावित होकर तत्कालिक शांति के हित में स्वतंत्रता के मूल्य के रूप में हमें तब हमारे प्राचीन राष्ट्र का विभाजन स्वीकार करना पड़ा था ।
विभाजन की सबसे बड़ी त्रासदी यह थी कि पृथ्वी के जिस भू-भाग को सभी भारतवासी अपने पूर्वजों के अखंड सांस्कृतिक भूमि के रूप में जानते थे तथा जिसके पग-पग से वह ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक रूप से जुड़ाव भी अनुभव करते थे, उससे भविष्य में उनका दीर्घकालिक विच्छेद दर्शित हो रहा था । स्वतंत्रता के पूर्व तक वे भले ही परतांत्रिक त्रास से ग्रसित थे परंतु हर रूप में भ्रमण एवं आवागमन हेतु अवश्य स्वतंत्र थे । स्वतंत्रता के पश्चात राष्ट्र के एक विशाल पूर्ववर्ती भूखंड से वंचित होने का क्लेश सभी को निश्चित रूप से पीड़ित कर रहा था । यदि उस काल के इतिहास का ध्यान से अध्ययन करेंगे तो हम यह पाएंगे कि भले ही तत्कालीन विषम परिस्थितियों में राष्ट्रभक्त नेतृत्वकर्ताओं ने विभाजन को साम्प्रदायिक संघर्ष से बचने के लिए स्वीकार कर लिया परंतु आंतरिक वैचारिक रूप से धार्मिक आधार पर प्रस्तावित द्विराष्ट्रीय सिद्धांत को आत्मसात करने के लिए कदापि तैयार नहीं थे ।
जब भारत भूमि के एकत्रित विशाल खंडों को विभाजित कर भारत,पश्चिमी एवं पूर्वी पाकिस्तान का गठन हो रहा था, तब भी महर्षि अरविंद सहित अनेक राष्ट्रभक्तों को यह संपूर्ण विश्वास था कि विभाजन ऐतिहासिक कालखंड में क्षणिक रूप में ही अस्तित्व में रहेगा तथा भविष्य में सांस्कृतिक तथा भौगोलिक दृष्टिकोण से ऐतिहासिक काल का अखंड भारत पुनः उभरेगा । यही कारण था कि जब दिग्भ्रमित नेतृत्वकर्ताओं ने ऐतिहासिक संस्कृति को विकृत करते हुए राष्ट्र के दो विभिन्न विशाल भूखंडों पर पश्चिमी एवं पूर्वी पाकिस्तान की संरचना नवीन इस्लामी राष्ट्र के रूप में की, तब राष्ट्रभक्त नेतृत्वकर्ताओं ने धर्म के आधार पर द्विराष्ट्रीय अवधारणा को मूल रूप में ही पूर्णतः अस्वीकार करते हुए धर्म निरपेक्ष भारत के संविधान की संरचना की ।

प्रथम स्वतंत्रता दिवस के उपरांत, आज, 72 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं । इस काल में द्विराष्ट्रीय सिद्धांत के आधार पर स्थापित पाकिस्तान अपने भारत रूपी मूल राष्ट्रखंड से चार अवसरों पर युद्ध भी कर चुका है । प्रथम युद्ध तो स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद ही 1948 में भारत शीर्ष कश्मीर घाटी में लड़ी गई, जिसमें आक्रांताओं को जब लगभग खदेड़ा जा चुका था और युद्ध अपने अंतिम पड़ाव में ही था कि अचानक युद्धविराम का निर्णय हो गया । इस युद्धविराम के कारण अजीबोगरीब परिस्थितियां उत्पन्न हो उठीं और कश्मीर तथा भारत की मुख्यधारा के मध्य धारा 370 नामक अस्थायी अवरोधक रूपी संरचना नवीन भारत के संविधान में प्रविष्ट हो गई । तत्पश्चात अगला युद्ध 1965 में लड़ा गया, जिसमें आक्रांताओं को मुंह की खानी पड़ी । भारत से द्विराष्ट्रीय सिद्धांत के आधार पर स्थापित पाकिस्तान को तत्पश्चात बड़ा आघात 1971 में तब पहुँचा जब पूर्वी पाकिस्तान में द्विराष्ट्रीय सिद्धांत को त्यागकर सांस्कृतिक रूप से भिन्न बांग्लादेश की स्थापना के लिए मुक्ति वाहिनी द्वारा सशस्त्र आंदोलन प्रारम्भ कर दिया गया जिसे कालांतर में भारत द्वारा सहयोग देने पर अगला भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ । इस युद्ध के कारण भारत से अलग हुए पाकिस्तान का विभाजन हो गया और बांग्लादेश नामक राष्ट्र स्थापित हो गया ।
1971 के युद्ध के पश्चात यह भी सिद्ध हो गया कि जिस साम्प्रदायिक द्विराष्ट्रीय अवधारणा के कारण पाकिस्तान की स्थापना हुई थी,वह त्रुटिपूर्ण था और अपने आप में पाकिस्तान के भविष्य के संकेतकों को समाहित रखे हुए था । ऐसे में पाकिस्तान को एक तरफ जहाँ अपने अस्तित्व पर संकट के बादल दर्शित होने लगे, वहीं दूसरी तरफ यह भी स्पष्ट हो गया कि भारत को सीधे युद्ध में पराजित करना असंभव था । तब उसने छद्मयुद्ध की नीति निर्धारित की तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलगाववादियों को संरक्षण देना प्रारंभ कर दिया । इस नीति के दुष्प्रभावों के कारण कुछ समय तक पंजाब संघर्षरत रहा और फिर कश्मीर की बारी आई ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अनेक पूर्व राजसत्ताएं जहां भारत में पूर्णतः विलीन हो चुकी थीं, वहीं कश्मीर में धारा 370 ने कालांतर में राष्ट्र की मुख्यधारा से विभिन्न शक्तियों को पोषित कर सुदृढ़ करने का कार्य किया था । हालांकि तत्कालीन संविधान निर्माताओं को धारा 370 के विषय में यह विश्वास था कि भारत की मूल सांस्कृतिक अवधारणा के समक्ष अस्थायी अवरोधक कुछ समय पश्चात स्वतः समाप्त हो जाएगा, परंतु कुछ शत्रुपोषित एवं अनेक श्रेणियों के दिग्भ्रमित नेतृत्वकर्ताओं के लघु स्वार्थों के कारण कालांतर में ऐसा नहीं हुआ और धीरे-धीरे समस्या विकराल रूप धारण करते करते अलगाववादी स्वरूप ले उठी । शत्रु के खुले आवाह्न पर ऐसे दिशाभ्रमित राष्ट्रविरोधी तत्वों को नवीन संजीवनी संप्राप्त हो गई ।
1989 के पश्चात कश्मीर में अलगाववादी नेतृत्वकर्ताओं ने आंदोलन को जेहादी एवं आतंकवादी स्वरूप में संगठित कर भारत की मूल अवधारणा को सबसे बड़ी चुनौती दे दी, जिसके कारण साम्प्रदायिक आधार पर सदियों से कश्मीर में निवास करने वाले पंडितों को परिवार समेत उनके मूल जन्मस्थल से बहिष्कृत कर दिया गया । पाकिस्तान द्वारा पोषित जेहादी आतंकवादी गगतिविधियों के कारण कश्मीर की स्थिति तुरंत सामान्य न हो सकी । भारत शीर्ष शत्रुपोषित संघर्ष के कारण रक्तरंजित हो उठा और इसी क्रम में शत्रु द्वारा 1999 में विश्वासघात कर हिमालय की कुछ चोटियों का सशस्त्र अतिक्रमण कर लिया जिसके कारण भारत और पाकिस्तान के मध्य चतुर्थ युद्ध कारगिल में लड़ा गया । परिणाम अपेक्षाकृत रहा ! भारत के वीर सैनिकों के प्रतिरोधी आक्रमण का शत्रु अत्यधिक काल तक प्रत्युतर देने में सक्षम नहीं हो सका और उसे पुनः पराजय का सामना करना पड़ा । कश्मीर में अनेक भारतीय बलिदानियों ने सर्वोच्च त्याग समर्पित कर भारत की मूल सांस्कृतिक अवधारणा को संरक्षित करने के निमित्त योगदान दिया ।
15, अगस्त, 2019 को हम अपना 73वां स्वतंत्रता दिवस मनाएंगे । भारत के भविष्य के संदर्भ में इस अवसर पर हम पूर्व से अधिक आशान्वित हैं । इसी माह भारतीय संसद ने साहसिक एवं ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए उस अवरोध को समाप्त कर दिया है जिसके कारण भारत में विलय के पश्चात भी राष्ट्र-विरोधी तत्व कश्मीर में संपोषित हो रहे थे । यदि धारा 370 की अवधारणा के कारकों का विश्लेषण करेंगे तो निश्चित ही इसमें हमें उसी द्विराष्ट्रीय सिद्धांत के बीजक दर्शित होंगे जिसे सर्वसहमति से हमारे संविधाननिर्माताओं ने नकार दिया था । हमने भारत को धर्म निरपेक्ष राष्ट्र के रूप में स्थापित किया चूंकि यह हमारा ऐतिहासिक स्वरूप रहा है । विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद (1.164.46) के प्राचीन सूक्त “एकं सत्यं विप्रा: बहुधा वदन्ति”, अर्थात – “सत्य एक ही है, जिसकी व्याख्या विद्वान विभिन्न प्रकार से करते हैं” ने हमारी संस्कृति को सदैव अनेकता में एकता का दर्शन कराया है ।
हमारे जिन यशस्वी पूर्वजों ने “वसुधैव कुटुंबकम” के आधार पर विश्व बंधुत्व की कल्पना की थी, हम उनके ही वंशज हैं । इतिहास के विभिन्न कालखंडों में हमारे प्राचीन राष्ट्र ने विदेशी आक्रांताओं से संघर्षरत रहते हुए भी राष्ट्र की मूल अवधारणा को नष्ट नहीं होने दिया । आज संघर्ष एवं निस्वार्थ योगदान समर्पित करने का समय है । आवश्यकता यह है कि कश्मीर में संसद द्वारा जिस ऐतिहासिक एवं साहसिक निर्णय के हम साक्षी बने हैं, उसके लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु हम अपनी समस्त उर्जाओं को राष्ट्रहित में केन्द्रित कर दें । शत्रु शक्तियां जो सदैव भारत का अहित चाहती हैं और जिनका दुष्प्रभाव हमारे अपने मध्य रह रहे कुछ दिशाभ्रमित बंधुओं पर भी है, आवश्यकता आज उनके सशक्त सर्वांगीण प्रतिकार की है ।
आज, स्वतंत्रता दिवस की पूर्वसंध्या पर कभी अखंड भारत के पश्चिमी भाग के एक खंड रहे पाकिस्तान में स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर कुछ नेतृत्वकर्ताओं के विचार सुन रहा था । कश्मीर पर भारत के संसद के निर्णय के विरुद्ध शत्रु पक्ष में बौखलाहट के भाव स्पष्ट दर्शित हो रहे थे, जिन्होंने शनैः शनैः अतिशयोक्ति अलंकार धारण करना प्रारंभ कर दिया था । चूंकि इतिहास द्वारा अस्वीकृत द्विराष्ट्रीय अवधारणा के संपोषण हेतु पाकिस्तान को अब विश्व के अन्य राष्ट्रों की सहायता मिलने की संभावना नगण्य प्रतीत होने लगी है, अतः आज दिन में संभाषण के क्रम में जहां एक पाकिस्तानी बुद्धिजीवी द्वारा अपने संकीर्ण साम्प्रदायिक चिंतन का प्रदर्शन करते हुए कश्मीर में बसने वाले किसी भी हिंदू की हत्या का आवाह्न किया गया, वहीं एक मंत्री ने सभी कश्मीरियों को यह स्मरण कराने का प्रयास किया कि वे तथा पाकिस्तानी एक ही हैं तथा एक ही राष्ट्र के अंग हैं । सांस्कृतिक एकता की बात सुनकर मुझे उस मंत्री की मूर्खता एवं वैचारिक संकीर्णता पर तरस आ रहा था चूंकि कश्मीर निवासी भारतवासियों के संदर्भ में टिप्पणी कर वह अपने पूर्वजों के इतिहास से संबंधित एकतामूलक सिद्धांतों को ही तो मुखर कर रहा था ।
जिस द्विराष्ट्रीय सिद्धांत के आधार पर विभाजन को हमने तत्कालिक शांति के हित में भले ही स्वीकार किया था परंतु आत्मसात कभी नहीं किया था, उसकी दुर्गति तो बांग्लादेश के पृथक्करण एवं वर्तमान पाकिस्तान के अधीन क्षेत्र में ही अवस्थित बलूचिस्तान तथा गिलगित एवं पश्चिमोत्तर राज्य क्षेत्र में चल रहे आंदोलनों से स्पष्ट है । ऐसे में जब पाकिस्तान का मंत्री सांस्कृतिक इतिहास की बात करता हो तो उसे यह भी स्मरण रखना चाहिए कि बात तो निश्चित ही सत्य है, परंतु बात जब निकलेगी तो केवल कश्मीर और पाकिस्तान अंतर्गत क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रहेगी अपितु इतिहास का स्मरण कर संपूर्ण भारत को पुनः अखंड रूप में पुनर्स्थापित करने की चेष्टा करेगी जिसमें सर्वप्रथम युद्ध पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर स्थित भूभाग से प्रारंभ होकर अन्य क्षेत्रों को भी एकीकृत करने का ऐतिहासिक यत्न करेगी ।
विभाजन को ऐतिहासिक कारणों से भले ही हमने तब स्वीकारा था परंतु मन में विश्वास आज भी है कि भारत की मूल सांस्कृतिक अवधारणा निश्चित रूप से विजित होकर विश्वबंधुत्व की नीति सहित संपूर्ण विश्व का मार्गदर्शन करेगी । मन जब भारत के ऐतिहासिक स्वरूप का चिंतन करता है तो आज भी कभी नीलम घाटी में अवस्थित शारदा पीठ का स्मरण करता है, कभी सुवस्तु (स्वात) घाटी में भ्रमण करता है, कभी तक्षशिला में अध्ययनरत हो उठता है, तो कभी हिंदुकुश पर्वत श्रृंखला से उद्धृत हो कुभा (काबुल) नदी में स्नान करने लगता है और भारत के भविष्य के प्रति प्रार्थनारत हो उठता है ।
स्वतंत्रता दिवस हमें स्मरण कराता है असंख्य प्रसिद्ध एवं उनसे भी अधिक कोटिसंख्यक और संभवतः विस्मृत अनेक राष्ट्रभक्त स्वतंत्रता सेनानीयों के दृढ निश्चय सहित सर्वस्व त्याग एवं समर्पण का । यह दिवस हर भारतीय के लिए अत्यंत गर्व एवं हर्ष का विषय है । इस अवसर पर हमें अपने राष्ट्रीय इतिहास पर गंभीर चिंतन करना चाहिए और विशेषकर उन कारणों एवं परिस्थितियों पर जिनके कारण कालांतर में परतंत्रता इस शक्तिशाली राष्ट्र को ग्रसित करने में सक्षम हो सकी । कहा जाता है कि जब कोई राष्ट्र अपने इतिहास से नहीं सीखता तब ऐतिहासिक पुनरावृत्ति के लक्षण पुनः प्रबल होते दिखाई देते हैं ।
यदि हम भारत के इतिहास को देखते हैं तो अक्सर यह पाते हैं कि जब भी किसी बाह्यजनित चुनौति से इस राष्ट्र का सामना हुआ तब तत्कालीन राष्ट्राधिकारीयों ने एकत्रित होकर सामूहिक रूप से उसका प्रत्युत्तर नहीं दिया था । हर राजा अपने राजकीय सामर्थ्य के प्रति आश्वस्त तब तक बना रहता जब तक बाह्य आक्रान्ता सीमांत प्रदेशों का उद्भेदन कर संहार करता हुआ और अत्याधिक प्रबल बनता हुआ उसकी सीमाओं तक न पहुंच जाता । हर जनपद अपनी लड़ाई को भिन्न भिन्न लड़ता और पराजित होने पर अक्सर शत्रु से संधि कर जहाँ अपने अधिकारों की कुछ रक्षा करता वहीं अगले जनपद के विरुद्ध शत्रु के युद्ध में तत्स्थ न बन सहभागीता के लिए बाध्य बनता जिससे पराधीनता के संचार की गति बढती जाती और अपने ही बांधवों से पदाक्रान्त होकर मातृभूमि शत्रु के शौर्य के अधीन हो जाती । राजाओं और जनपदों के तुच्छ राजनीति में उलझे रहने के कारण राष्ट्र को बाह्य सम्राटों के अधीन होते इतिहास ने देखा है । निज तुच्छ स्वार्थों के कारण सांस्कृतिक पराभव की वृत्तियों का भी अनेक क्षेत्रों में बीजारोपण हुआ जिससे राष्ट्र आज भी जूझ रहा है । आचार्य चाणक्य ने आज से लगभग 2300 वर्ष पूर्व ही इन स्वार्थजनित कूवृत्तियों का अध्ययन कर जब यवनों के विरुद्ध राष्ट्रीय हितों के एकीकरण का प्रयास किया तब शिक्षकों और छात्रों को भी सत्ताओं से बृहत् संघर्ष करना पड़ा था परंतु परिणाम राष्ट्रहित में उत्तम रहे थे ।
स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर आवश्यकता है राष्ट्र विरोधी शक्तियों एवं वृत्तियों को समझने का तथा उज्जवल भविष्य के लिए नीति निर्धारण करने की चूंकि भारत का स्वतंत्र और सशक्त होना मानव हित के लिए अपरिहार्य है । एक तरफ जहाँ विश्व के अनेक राष्ट्र आज भी धर्म एवं संप्रदाय के नाम बंटकर विध्वंसक युद्धों का सूत्रपात कर रहे हैं वहां प्राचीन काल से ही भारत अपने “वसुधैव कुटुंबकम्” और “एकं सत्यं विप्रा बहुधा वदन्ति” के दर्शन के साथ सुदीर्घ विश्व का दिशाबोधक बना हुआ है । स्वतंत्रता दिवस अवसर है अपने राष्ट्रीय सामर्थ्यों पर विचारण का और सशक्तिकरण का चूंकि भविष्य में हमारा सार्थक योगदान तभी होगा जब हम सुदृढ़, संगठित एवं संकल्पित होंगे । आवश्यकता आज राष्ट्रकवि दिनकर की पंक्तियों में अभिव्यक्त राष्ट्रभावना को ग्रहण कर आत्मसात करने की है –

“सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है,

बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है” ।

स्वतंत्रता दिवस 2019 की पूर्वसंध्या पर हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई !

जय हिंद !

विकास वैभव

{ साभार-श्री विकास वैभव,डीआईजी भागलपुर रेंज}

Ravi sharma

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