देश चलता नहीं मचलता है,कोरोना वायरस और मजदूर-रवि शर्मा कि कलम से✍️

ऑफिस डेस्क-कोरोना नाम की इस वैश्विक महामारी ने भारत समेत लगभग पुरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है.वर्तमान मे जो हालात है और आगे के दिनो मे जो हालात होगें वो निश्चित रूप से भयावह होगें.खैर इन सब के बिच भारत शायद एकलौता ऐसा देश है जहां कोरोना के नाम पर इतनी राजनीति हो रही है.इस वक्त की राजनीति के कुछ प्रमुख केंद्र बिंदु है जिनपर मै अपना मत रख रहा हूं.आज सर्वप्रथम बात करते है अपने मजदूर, कामगार भाइयों की….

मजदूर:-यह शब्द दिमाग मे आते ही शायद अन्य प्रदेश के लोगो को बिहार और बिहारी समझ मे आने लगता है. या शायद बिहारी और मजदूर पर्यायवाची हो गए है.कोरोना वायरस से उपज रहे खतरे को देखते हुए एकाएक देश मे लॉकडाउन कि घोषणा कर दि गई. इस घोषणा के बाद सारे कल-कारखाने और रोजगार ठप्प हो गए.कोरोना वायरस के साथ हुए इस अप्रत्याशित हमले ने कल-कारखाने के मजदूर,कामगारों और दैनिक मजदूरी कर जिवन यापन करने वाले लोगो के समक्ष बिमारी के साथ-साथ भुखमरी का खतरा भी उतपन्न कर दिया. लॉकडाउन के बाद लॉकडाउन और इससे उपजे आर्थिक संकट और भुखमरी ने मजदूरों को पलायन करने को विवश कर दिया.लोग किसी तरह अपने गृह राज्य कि ओर प्रस्थान करने लगे.हालांकि सरकार को यह फैसला लेने से पूर्व इस पर विचार करना चाहिए था मगर ऐसा नहीं किया गया और यह दुर्भाग्यपूर्ण है.पैदल,साइकिल से,मोटरसाइकिल से सामान लादने वाली गाड़ियों मे मजदूर पलायन कर रहे है और रास्ते मे हादसों के शिकार भी हो रहे है.

शुरुआत मे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अन्य राज्यों से आ रहे बिहारी मजदूरों के आने पर पाबंदी लगा दी.और इस पाबंदी के साथ ही मजदूरों को केन्द्र बिंदु मे रखकर राजनीति शुरू हो गई.मजदूर और कामगार बस किसी तरह अपने घर पहुंचना चाह रहे थे और एकाएक सभी दल मजदूरों के हितैषी बन गए.कोई बस फ्रि देने कि बात करने लगा, कोई ट्रेन के टिकट का पैसा. कई जगहो पर मजदूर उग्र प्रदर्शन करने लगे.अंतत: सरकार भी झुकी और उन्हें बिहार लाने के भागिरथी प्रयास अब भी किए जा रहे है.खैर इन सारी बातो के बिच जो सबसे हैरत की बात मुझे नजर आई वो ये कि इन्हें वापस लाने का क्रम तो जारी है मगर इसके बाद क्या.?

क्या सरकार ने इस घटना से कुछ सिख लिया.?

पक्ष-विपक्ष सहित सभी राजनीतिक दलो ने अपना अपना हित साधते हुए इन्हें वापस लाने के मुद्दे पर तो अपनी सक्रियता दिखाई मगर मूल मुद्दे पर आज तक किसी दल ने कुछ नहीं कहा.किसी दल ने यह आश्वासन नहीं दिया या सत्ताधारी दल ने यह नहीं कहा कि अब बिहार का कोई मजबूर मजदूर रोटी कि तलाश मे किसी अन्य प्रदेश मे नहीं जाएगा. अब कोई मजबूर मजदूर रोटी कि तलाश मे जाकर किसी अन्य प्रदेश मे गाली और दुत्कार नहीं सहेगा.


आखिर क्यो वह रोजगार के अवसर प्रदेश मे नहीं पैदा किए जा रहे जिससे लोग अपनी मिट्टी,अपने राज्य मे रहकर अपना पेट पाल सके.मजदूरों के नाम पर हो रहे इन तमाम राजनीतिक आरोपों-प्रत्यारोपों के बिच इस मुख्य मुद्दे का गायब होना इस बात की चुगली करता है कि मजदूर सिर्फ मजदूर है और कोई राजनीतिक दल उसका सच मे भला नहीं चाहते.सामने चुनाव है और उसे फिर एक बार अपने पाले मे मिलाने का प्रयोग जारी है.फिर एक बार चुनाव होगा,फिर सरकारें बनेगी, कोरोना का प्रकोप कुछ कम होगा और फिर मजदूर रोजी रोटी कि तलाश मे इस प्रदेश से उस प्रदेश अनवरत भटकता रहेगा. फिर एक बार भारत का श्रमनायक,धरतीपुत्र बिहारी रोटी कि तलाश मे गाली,दुत्कार और किसी नयी बिमारी का डर समेटे किसी अन्य प्रदेश मे किसी कारखाने के आगे खड़ा मिल जाएगा.


अंतीम मे इतना ही कहुंगा कि अगर इस बार भी हमने विकास का मतलब नहीं समझा, इस बार भी इस समस्या से निकलने का रास्ता नहीं तलाशा तो अगली बार लखनऊ से सायकिल पर चले मजदूर या महाराष्ट्र के रेलवे ट्रैक पर थककर सोया मजदूर या मध्यप्रदेश मे थकान और पानी कि कमी से मरे पैदल लौट रहे मजदूरों मे कौन होगा कौन जानता है.

रवि शर्मा

Ravi sharma

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