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अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट
जगन्नाथपुरी ( उड़ीसा ) –आजकल विश्व में पर्यावरण की पर्याप्त चर्चा है । परंतु पर्यावरण को समझने और उसके संरक्षण के मार्ग को प्रशस्त करने की भी आवश्यकता है । हमारे दर्शन ग्रंथों में पृथ्वी-जल-तेज-वायु-आकाश, अहंतत्व-महत्तत्व और अव्यक्त – इनका उल्लेख पर्यावरण के रूप में है । यह ब्रह्म तत्व के अभिव्यंजक संस्थान हैं और बहिर्मुख व्यक्तियों के लिए आच्छादक या आवरक संस्थान भी है । कोई भी कार्य होता है, उसमें कारण अनुगत होता है। लेकिन बहिर्मुख व्यक्ति की दृष्टि में कारण मानो ओझल होता है । इस दृष्टि से कार्य, कारण का आच्छादक माना जाता है।
ब्रह्म तत्व , जो कि वेदांतवेद्य सच्चिदानंद स्वरूप है, उसकी शक्ति प्रकृति है । प्रकृति के कार्य ही महत्तत्व-अहंतत्व ,.शब्दतन्मात्रक आकाश, स्पर्शतन्मात्रक वायु, रूप तन्मात्रक तेज, रस तन्मात्रक जल, गन्ध तन्मात्रिका पृथ्वी है। सामान्य दृष्टि से विचार करें तो आस्तिक नास्तिक वैदिक अवैदिक उभय सम्मत ऊर्जा के स्रोत – पृथ्वी, पानी, प्रकाश और पवन हैं। इन्हीं चार भूतोंसे हमारा अपना शरीर भी बना है । इनको आधुनिक विधा से विकृत, क्षुब्ध और अत्यंत कुपित कर दिया गया है । इसके मूल में क्या चिंतन सन्निहित है इस पर विचार करने की आवश्यकता है । भगवान मनु का वचन है – (मनुस्मृति के 11-63….
मैं) – महायंत्रः प्रवर्तनम् – महायंत्रों का प्रचुर आविष्कार और प्रयोग होता रहेगा तो ऊर्जा के स्रोत, जो पृथ्वी, पानी, आकाश, पवन आदि हैं, यह विकृत, क्षुब्ध और कुपित हुए बिना नहीं रहेंगे और महायंत्रों का उपयोग, विनियोग महानगरों की संरचना में होगा और महानगर की संरचना के लिए, प्रशस्त मार्ग की संरचना के लिए, वन का विलोप होना ही पड़ेगा, पर्वतों का विलोप करना ही पड़ेगा, खनिज पदार्थों का विलोप करना ही पड़ेगा, महानगर की संरचना हो भी गई तब शुद्ध मिट्टी, पानी, प्रकाश, पवन, प्रचुर आकाश की समुपलब्धि वहां नहीं होगी । अतः शुद्ध गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द की भी उपलब्धि नहीं होगी । शुद्ध मनोभाव, शुद्ध मुस्कान भी महानगर में गति नहीं होगी । संयुक्त परिवार का विलोप होगा, संयुक्त परिवार के विलुप्त होने पर कुल धर्म, कुलाचार, कुलवधू, कुलदेवी, कुलदेवता, कुलगुरू – इन सब का विलोप होगा ।
विकास के नाम पर फिर मनुष्य को भोजन करने और संतान उत्पन्न करने की मशीन बना दिया जाएगा । साथ ही साथ आधुनिक विधा से विकास को परिभाषित करने और क्रियान्वित करने का पर्याय है की स्थावर प्राणी जिनको उद्भिज कहते हैं – तरु लता गुल्म इत्यादि , इनकी प्रजातियां भी विलुप्त हो गई हैं । जंगम प्राणी जो पांव से चलते हैं , साथ ही नभचर हैं – इन सब की प्रजातियां भी विलुप्त हो रही हैं । गिद्ध के भी जीवित रहने योग्य वातावरण नहीं रह गया है । फिर हंस का दर्शन तो कठिन ही है । ऐसे स्थिति में वैदिक विधा से विकास को परिभाषित और क्रियान्वित करने की आवश्यकता है । तभी पर्यावरण की समग्र रक्षा हो सकती है । जिन तत्वों से हमारे शरीर की रचना हुई है , देह, ईद्रियाँ, प्राणान्तःकरण की रचना हुई है, उन्हीं तत्वों को विचार करने पर देखें तो आवरण कहते हैं। यह आत्मतत्व के अभिव्यंजक संस्थान भी है और आच्छादक संस्थान भी है। एतावता, देहेन्द्रीय-प्रणान्तःकरण हमारा शुद्ध हो, इसके लिए प्राचीन विधा से विकास को परिभाषित और क्रियान्वित करने की आवश्यकता है ।
श्रीमद्भागवत गीता के 18 वे अध्याय का अनुशीलन करें तो जब बुद्धि में तमो गुण की प्रबलता होती है तो सर्वथा विपरीत निश्चय व्यक्ति लेता है । विकास को विनाश, विनाश को विकास, अभय को भय और भय को अभय , मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्र समझता है । उत्कर्ष को अपकर्ष और अपकर्ष को उत्कर्ष समझता है । जब बुद्धि में रजोगुण का उदय होता है, तो आयथावत् प्रजानाति – सर्वदा यथार्थ भी नहीँ, सर्वदा आयथार्त भी नहीँ – व्यक्ति निर्णय लेता है। सत्त्वगुण का उदय होने पर व्यक्ति दूध का दूध, पानी का पानी – ठीक-ठीक निर्णय ले सकता है ।
आज इस कंप्यूटर, राकेट , एटम , मोबाइल के युग में देखें तो 80% प्रतिशत विकास की परिभाषा – तमोगुण की प्रगल्भता की दशा में गढ़ी गई है । उसे क्रियान्वित करने का प्रकल्प चल रहा है । 16 प्रतिशत, वह रजोगुण की दशा में न सर्वथा यथार्थ, न सर्वदा अयथार्त विकास क्रियान्वित हो रहा है । केवल 4% प्रतिशत , वो भी
वेदादि शास्त्रसम्मत मान्यता जिनके हृदय में है, उनके माध्यम से पर्यावरण की रक्षा हो रही है । हम ने संकेत किया कि इस राकेट , कंप्यूटर, एटम्, एवं मोबाइल के युग में भी इस विचार की आवश्यकता है कि वैदिक महर्षिओं द्वारा चिर परीक्षित, प्रयुक्त जितने भी सिद्धांत हैं वह न केवल दार्शनिक अपितु वैज्ञानिक, व्यावहारिक धरातल पर भी सर्वोत्कृष्ट हैं ।
अतः मैं अंत में एक संदेश देना चाहता हूं – श्रीमद्भागवत चतुर्थ स्कन्द, 118 के श्लोक 3,4,5 के अनुसार , भूदेवी ने गाय का रूप धारण कर के महाराजाधीराज पृथु को प्रबोधित करते हुए कहा, राजन् वैदिक महर्षिऔं के द्वारा चिर परीक्षित और प्रयुक्त जो सिद्धांत हैं , उन्हें ताक पर रखकर जब विकास को परिभाषित और क्रियान्वित करने का प्रकल्प चलाया जाता है, तो लौकिक उत्कर्ष भी संभव नहीं है पारलौकिक उत्कर्ष और परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त हो यह तो कथमपि संभव नहीं है ।
मैंने संकेत किया कि, “एका क्रिया द्वि अर्थ करी प्रसिद्धा”-
हमारे शास्त्रों के अनुसार अग्नि पुराण आदि के अनुसार, नारद पुराण के अनुसार, पद्मपुराण के अनुसार यह सिद्ध होता है कि हमको विकास को इस ढंग से परिभाषित और क्रियान्वित करना चाहिए जिससे लौकिक उत्कर्ष भी हो और पारलौकिक उत्कर्ष भी हो, साथ ही साथ परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग भी प्रशस्त हो । संकेत में धर्म- अर्थ – काम – मोक्ष , इन चारों पुरुषार्थ का संरक्षण जिस ढंग से हो सके उस ढंग से पर्यावरण को परिष्कृत करने की आवश्यकता है ।